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प्रश्न कविता से

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 इस दिन फुर्सत में, कविता से पुछा मैंने- "क्या खामी है मुझमें ? तू क्यों नहीं रहती मेरे लिखे पन्नों में ?" फिर खुद ही जवाब दिया- "शायद मेरे शब्दों का घर बड़ा नहीं है, या वे इतने संपन्न नहीं, जो रहने लायक हों तेरे| या क्योंकी मैं प्रसिद्द नहीं, मेरी नाम में निराला, वर्मा या पन्त नहीं| आखिर क्यों दूर है मुझसे?" कविता हँसकर बोली- "रे पगले! मैं तो हमेशा तेरे दिल में रहती हूँ, जिस दिन कलेजा अपना  कागज़ पर रख देगा तेरे पन्नों में भी बस जाउंगी|" 

वो वक्त ही कुछ और था...

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क्यों अब बारिशों में भीगते नहीं ? क्यों बादलों में अब चेहरे नहीं ढूंढते ? क्यों दौड़ते नहीं तितलियों के पीछे ? क्यों लेटकर ज़मीं पर अब सितारे नहीं साधते ? पहले बुझ जाती थी पलक झपकते ही. क्यों शामें वो अब छोटी नहीं लगती ? लंबी कहानी दादी की जो सवेरे खत्म होती थी , राक्षस , राजकुमार में क्यों अब लड़ाई नहीं होती ? क्यों दोपहर में घंटी की आवाज़ पर चौंकते नहीं है ? पेड़ की टहनियों पर क्यों झूलते नहीं है ? सुबह नाराजगी , तो सुलह शाम मे हो जाते थी.. उन रंजिशें को क्यों अब भूलते नहीं है ? क्यों माँ से अब चम्पी नहीं कराते ? क्यों पिताजी के साथ मेले नहीं जाते ? क्यों नानी के हाथ से मेवे नहीं खाते ? क्यों बड़ों से अब आशीष नहीं पाते ? गीली मिट्टी में बनाते नहीं है टीले , ना बटोरते है पत्थर रंगीले , अब चीटियों की कतार का पीछा नहीं करते , जानवरों की आवाजों को सीखा नहीं करते , वो वक्त ही कुछ और था... अब काम के बोझ तले , वक्त को बहने देते है ... तब काम पिटारी में रखकर , वक्त में ही बह जाते थे ... वो वक्त ही कुछ और था ... क्योंकी.अब ..