वो वक्त ही कुछ और था...
क्यों अब बारिशों
में भीगते नहीं?
क्यों बादलों में
अब चेहरे नहीं ढूंढते ?
क्यों दौड़ते नहीं
तितलियों के पीछे?
क्यों लेटकर ज़मीं
पर अब सितारे नहीं साधते ?
पहले बुझ जाती थी
पलक झपकते ही.
क्यों शामें वो
अब छोटी नहीं लगती?
लंबी कहानी दादी
की जो सवेरे खत्म होती थी,
राक्षस, राजकुमार में क्यों अब लड़ाई नहीं होती?
क्यों दोपहर में
घंटी की आवाज़ पर चौंकते नहीं है?
पेड़ की टहनियों
पर क्यों झूलते नहीं है?
सुबह नाराजगी,
तो सुलह शाम मे हो जाते थी..
उन रंजिशें को
क्यों अब भूलते नहीं है ?
क्यों माँ से अब
चम्पी नहीं कराते?
क्यों पिताजी के
साथ मेले नहीं जाते?
क्यों नानी के
हाथ से मेवे नहीं खाते?
क्यों बड़ों से अब
आशीष नहीं पाते ?
गीली मिट्टी में
बनाते नहीं है टीले,
ना बटोरते है
पत्थर रंगीले,
अब चीटियों की
कतार का पीछा नहीं करते,
जानवरों की
आवाजों को सीखा नहीं करते,
वो वक्त ही कुछ
और था...
अब काम के बोझ
तले,
वक्त को बहने
देते है ...
तब काम पिटारी
में रखकर,
वक्त में ही बह
जाते थे ...
वो वक्त ही कुछ
और था ... क्योंकी.अब ..
माँ अब सुबह
प्यार से उठाती नहीं है ...
दादी भी लोरी गा
कर रात में सुलाती नहीं है ...
वो वक्त ही कुछ
और था ...
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