Posts

Showing posts from 2012

शेर

आशिक:जिन्हें मेरी चाहत से ऐतबार नहीं है, ऐ खुदा! हमें भी उनसे प्यार नहीं है|  खुदा: इसमें होता नहीं है सौदा लेन देन का, ये मुहब्बत है बंदे, कोई व्यापार नहीं है |  ~~ऋषभ~~

वक्त

बेटा! क्यों घर नहीं आता ? पापा! वक्त नहीं मिलता| बेटा! कुछ वक्त बचाया था, अपने बुढापे के लिए, ज़रूरत हो तो ले जाना' यहाँ बेमतलब रखा है|

गुनाह

गुनाह करना  जिस देश में  गुनाह नहीं || उस देश का मैं  गुनेहगार हूँ ... मैं ईमानदार हूँ || ~~Rishabh~~

दीपावली ...०

दीवाली पे घर जाएँ कैसे ? हमरी रेल का कुछ ये है हाल ... सारी रात लगो लाइन में, फिर भी कहलाता तत्काल 

दीपावली ... २

हज़ारों का बारूद, पल में जला गए | सड़क पे भूखी बच्ची, क्यों नहीं दिखी? एक ओर तो लौ  जला के रक्खी है,  फिर रोशनी उससे, क्यों छुपा रखी? उसके नसीब में क्या, बस धुंआ है जश्न का, उसके नसीब में क्या, बस उत्सव का शोर है, शायद ... Who cares!

दीपावली ... १

तेरा घर तो है रोशन, क्यों दीये जलाता है? जो अँधेरे करो रोशन, तो सफल दीवाली हो| ~~Rishabh~~

ज़िंदा

तुम्हें देखा आज, एक ज़माने बाद, . कुछ देर  साँसे अटकी,  फिर,  दिल धडकने लगा,  . मैं ज़िंदा हूँ अबतक , ये लगने लगा||  ~~ऋषभ~~

वक्त, तब और अब

एक वक्त था,  हम छोटे थे ... थोडा डर था, कुछ चिंता थी, सपने भी थे, आशंका भी,  कुछ उसूल तब हुआ करते थे, बेमन पर मना किया करते थे| . नए चेहरों से कतराते थे तब, इम्तिहानों से घबराते थे तब, दस्सी लगने पर इतराते थे तब, लड़ते भी थे, चिल्लाते भी थे तब, . क्लास टाइम पे जाते थे, लाइब्रेरी में मगने आते थे, हर इम्तिहान हमें डराता था, सारी रात जगाता था, . सीनिअर तब 'फंडे' दिया करते थे, घोड़ा-गिरी हम किया करते थे, पेफ में लेई लगाते थे तब , होस्टल चीअरिंग को जाते थे तब, . उठकर रोज़ नहाया करते थे, मरीन ड्राइव जाया करते थे. हर बंदी को देखा करते थे, कुछ कहने से लेकिन डरते थे, . कुछ बातें, अब भी है वैसी , . लेकिन ... . अब रातों को उतना 'लुक्खा' नहीं काटते, घर का खाना चुराने पर उतना नहीं डांटते| . अब एंड-सेम से उतना डरते नहीं है, क्रिकेट स्कोर पर उतना लड़ते नहीं है| . अब हर दीवाली पे घर नहीं जाते, पुराने दोस्त अब उतना याद नहीं आते,, फोन पे अब घंटों बतियाते नहीं है, दिल की बात दोस्तों को बताते नहीं है | . कुछ और अब दिखता नहीं, खुद में हम इस क

फूल

Image
फूल, खिलते है, महकते है, मुरझाते है, बिखर जाते है| . लेकिन, इक दिया था जो तुमने, कई साल पहले ... . मेरी डायरी रखा, वो आज भी ज़िंदा है ||

माँ

Image
रात भर कल, खोजता रहा नींद को ... . और वो छुपी बैठी थी, माँ तेरी गोद में||

वक्त

Image
बेटा! क्यों घर नहीं आता ? पापा! वक्त नहीं मिलता| बेटा! कुछ वक्त बचाया था, अपने बुढापे के लिए, ज़रूरत हो तो ले जाना' यहाँ बेमतलब रखा है|

एक कलाम, जगजीत के नाम

Image
ग़मों पर सरगम सजा, वो धुन सुनाता रहा, जुबां ने चुप्पी साध ली, वो ग़ज़ल गुनगुनाता रहा। वो इश्क भी एक झूठ था, झूठे उम्र भर के वायदे, जिनके शहर थे उजड़ गए, उनके घर बनाता रहा। तेरे हुस्न की बारीकियां तेरे होंठों से नजदीकियां, लगा सामने तू आ गया, वो ग़ज़ल सुनाता रहा। जब शोर में संगीत था, और संगीत में शोर था, तूफानी वो दौर था, वो कश्ती कागज़ की चलाता रहा।

बापू! अब मत आना

Image
२१वी सड़ी ने धरती पर कदम रखा ही था| बदलाव की आंधी संस्कृति और संस्कारों को उड़ा रही थी |इस बदलाव से स्वर्ग भी अछूता ना रहा| वीणा के सुरों के स्थान पर अब इलेक्ट्रिक गिटार का 'बेकग्राउंड म्यूजिक' बजने लगा|मेनका की जगह 'ब्रिटनी' अप्सराओं की 'रोल मोडल' बन गयी और जो नेता यमराज को रिश्वत देकर वहां पहुंचे थे, वे अपनी अपनी पार्टी बना इंद्र की कुर्सी के लिए लड़ने लगे| इन सब के बावजूद 'बापू' तटस्थ रहे| लेकिन एक दिन बापू का चरखा 'ओल्ड फैशंड' बता कर स्वर्ग से फेंक दिया गया| उनका मन उचाट गया| उन्होंने सत्याग्रही अनशन करने की कोशिश की तो अप्सराओं ने ज़बरदस्ती अंगूर खिला दिये| अंततः तंग आकर बापू स्वर्ग त्याग दिया | वे अपने प्यारे आज़ाद भारत को देखने पृथ्वीलोक आ गए और मुंबई घूमने लगे| चारों ओर ऊँची इमारतें, तेज़ भागती गाड़ियां, माल सब उनकी कल्पना से परे था| उन्हें गर्व हुआ भारत की तरक्की पर| जगह जगह उनके स्मारक, मूर्तियाँ , रास्तों के नाम, नोट पर तस्वीर देख बापू का अचम्भा और बढ़ गया| सोचा चलो भारत सही रस्ते जा रहा है| अचानक दो युवक उन्हें देख रुक

ग़ज़ल

Image
जो बयान जुबां से हो जाए, वो आशिकी क्या है? जो होश में कट जाए, वो ज़िन्दगी क्या है? देखा  है  नूर  तेरा, हर  ज़र्रे  में  कायम, जो नज़र मंदिर में ही आए, वो बंदगी क्या है? कसम याद में मेरी, आँसू ना बहाना, जो अश्कों में बह जाए, वो बेबसी क्या है? ना जुबां पर शिकायत, ना चेहरे पे शिकवा, जो पराये समझ जाए, वो बेरुखी क्या है?   हर मोड़ पर, इस शहर में, आशिक बहुत तेरे, जिसे तारों ने ना घेरा, वो चांदनी क्या है?

अधूरी गज़ल

Image
रात आधी, बात आधी, एक जाम है आधा, मैं अधूरा, तुम अधूरी, शब् पर चाँद है आधा|| मुझसे मिलकर ही तो, हो पाएगा पूरा, है सुन्दर बहुत लेकिन, तेरा नाम है आधा | पुरानी चोट है दिल में, दवा रोज़ पीता हूँ, आधी हुई है ख़त्म, बचा अब दर्द है आधा| फिसल के हुस्न पर तेरे, सज़ा का हकदार मैं बना,  पर सज़ा की तू भी है हकदार ,तेरा गुनाह है आधा |    

सांझ होने को है

Image
सांझ होने को है, दूर क्षितिज पर,  सूरज अलविदा कह,  हो रहा है रुखसत।  अब भागना है, बेतहाशा,  पकड़ने को सूरज। सफ़र आसान नहीं, लेकिन सफल रहा तो, जिंदगी बीतेगी रोशनी में। अब थक गया, थम गया तो... सांझ होने को है ||

क्या होगा इस देश का?

Image
भारत एक विकाशशील देश है| यहाँ खान-पान. पहनावा, विचारधाराएं, सरकार एवं  रेल मंत्री सभी वक़्त और फैशन के साथ बदलते ही रहते है| एक मात्र अटल है, शाश्वत है, सार्वभौम है, सर्वव्याप्त है वो है एक सवाल -   क्या होगा इस देश का?  दार्शनिक, विचारक, ज्ञानी- अज्ञानी, नेता- अभिनेता,आम आदमी सभी इस सवाल के पीछे अपना सर खुजाते फिरते  है| रेल के डिब्बे   से  राजपथ   तक, अस्पताल से शमशान तक, बीडी की दूकान से पांच सितारा होटल तक लहजा बदल बदल के ये प्रश्न घूमता रहता है| कश्मीर से कन्याकुमारी तक यही  सवाल भाषा बदल-बदल कर दोहराया जाता है|    अनेकता में एकता का इससे जीवंत उदाहरण शायद की कहीं देखने को मिले| गोया ये सवाल इतना प्रचलित है के बस में बगल में बैठे नव-परिचित से लोग नाम बाद में पूछते है पहले ये सवाल दाग देते है -  भाई साहब! क्या होगा इस देश का?  जानते हुए भी कि अगले के पास इसका जवाब नहीं| असल में इसका जवाब कोई जानना ही नहीं चाहता| सवाल में ही इतना रस है कि लोग उसी में डूबे रहते है| अब बिना किसी डर के किसी के नुक्स निकाले जा सकते है तो वो देश ही तो है|  हर छोटी- बड़ी समस्या के बाद इस सवाल को जो

प्रश्न कविता से

Image
 इस दिन फुर्सत में, कविता से पुछा मैंने- "क्या खामी है मुझमें ? तू क्यों नहीं रहती मेरे लिखे पन्नों में ?" फिर खुद ही जवाब दिया- "शायद मेरे शब्दों का घर बड़ा नहीं है, या वे इतने संपन्न नहीं, जो रहने लायक हों तेरे| या क्योंकी मैं प्रसिद्द नहीं, मेरी नाम में निराला, वर्मा या पन्त नहीं| आखिर क्यों दूर है मुझसे?" कविता हँसकर बोली- "रे पगले! मैं तो हमेशा तेरे दिल में रहती हूँ, जिस दिन कलेजा अपना  कागज़ पर रख देगा तेरे पन्नों में भी बस जाउंगी|" 

वो वक्त ही कुछ और था...

Image
क्यों अब बारिशों में भीगते नहीं ? क्यों बादलों में अब चेहरे नहीं ढूंढते ? क्यों दौड़ते नहीं तितलियों के पीछे ? क्यों लेटकर ज़मीं पर अब सितारे नहीं साधते ? पहले बुझ जाती थी पलक झपकते ही. क्यों शामें वो अब छोटी नहीं लगती ? लंबी कहानी दादी की जो सवेरे खत्म होती थी , राक्षस , राजकुमार में क्यों अब लड़ाई नहीं होती ? क्यों दोपहर में घंटी की आवाज़ पर चौंकते नहीं है ? पेड़ की टहनियों पर क्यों झूलते नहीं है ? सुबह नाराजगी , तो सुलह शाम मे हो जाते थी.. उन रंजिशें को क्यों अब भूलते नहीं है ? क्यों माँ से अब चम्पी नहीं कराते ? क्यों पिताजी के साथ मेले नहीं जाते ? क्यों नानी के हाथ से मेवे नहीं खाते ? क्यों बड़ों से अब आशीष नहीं पाते ? गीली मिट्टी में बनाते नहीं है टीले , ना बटोरते है पत्थर रंगीले , अब चीटियों की कतार का पीछा नहीं करते , जानवरों की आवाजों को सीखा नहीं करते , वो वक्त ही कुछ और था... अब काम के बोझ तले , वक्त को बहने देते है ... तब काम पिटारी में रखकर , वक्त में ही बह जाते थे ... वो वक्त ही कुछ और था ... क्योंकी.अब ..

तस्वीर

Image
पुराने बंगले में, पीछे, एक लंबा, खामोश गलियार है। ठंडा और सीलन भरा, हवा तक कतरा के जाती है। बेरंग दीवारों पर, रंगहीन तस्वीरों की कतार, जाने कब से टंगी है। सर्दी में, पीपल के पत्तों से बचकर, रोशनी, अधखुली खिड़की चढ़कर , अन्दर आ जाती है, कोशिश करती है, तस्वीरों को रंगने की। पुराने बंगले में, पीछे, एक लंबा, खामोश गलियार है। फुरसत में इक दिन, कदम गए उस ओर, देखा तस्वीरों को निहारता, वक़्त मायूस सा खड़ा है। वजह पूछी तो, जवाब मिला, "क्या बताऊँ दोस्त! ... ... आजकल वक़्त कुछ ठीक नहीं।"      

ये ज़िंदा लाशों का शहर है

Image
ये ज़िंदा लाशों का शहर है।  ठहरी हुई ज़िन्दगी थामकर  लोग रोज़ भागते है, किस और भागते है, क्या खबर ? मंजिल दूर ही रहती है ... खुद गुमशुदा रास्ता दिखाते है, अंतहीन इस भूल-भुलैया में रोशनी में रास्ता दिखता नहीं, अंधेरों में रोशनी तलाशते है ...   ये ज़िंदा लाशों का शहर है। घड़ियाँ यहाँ मनमौजी है, कभी दौडती बेसुध, कभी थम सी जाती है .. फुर्सत में आइना अजनबी लगता है, न जाने कौन ?  सफ़ेद बाल, झुरियां थकी सी, कल तो उसपार एक नौजवान रहता था। आग जलती रहे अगली सुबह भी  इस कोशिश में, रंगीन पानी में हर रात डुबाते है ..  ये ज़िंदा लाशों का शहर है। यहाँ शोर में खामोशी है, पर सनातों का शोर है ... आँख खोल कर सोते है, जागते बंद आँखों से ... हकीकत बेच कर यहाँ सपने खरीदते है लोग ... उगती शामों में परिंदे, घर नहीं लौटते, ना ही माँ इंतज़ार करती है .. चूल्हे की आग ठंडी सी है। ये ज़िंदा लाशों का शहर है। लो इस अजीब शहर में,  एक सुबह फिर 'डूब' गई ।

शोक-समाचार - 'संयुक्त प्रवेश परीक्षा ने ली अंतिम सांस'

Image
संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) (9 अप्रैल 1960 – 8 अप्रैल 2012) लंबे समय से कपिल चप्पल की मार झेल रही 'संयुक्त प्रवेश परीक्षा' ने अंततः 8 अप्रेल, सांयकाल 5 बजे दम तोड़ दिया| आप 52 वर्ष के थे| आप प्रारम्भ से ही बड़े सख्त मिजाज थे| बच्चों के देखकर ही आपका पारा चढ जाता और आप उन्हें डराने धमकाने लगते| फलस्वरूप छोटे बालकों में आपका आतंक व्याप्त हो गया| लेकिन बढ़ती उम्र के साथ आपके मिजाज़ में कुछ नरमी आई| 'मानव संसाधन विकास मंत्रालय' के साथ लगभग तीस वर्षों तक आपके मधुर वैवाहिक सम्बन्ध रहे| जिसके फलस्वरूप अपनी युवावस्था में आपके सात पुत्र हुए| सभी ने बड़े होकर अलग-अलग शहरों में अपने पिता का नाम रोशन किया| लेकिन इतने से उनकी सांसारिक इच्छाएँ खत्म नहीं हुई| अपनी ढलती उम्र में भी आपने 'फाईट मार कर' आठ कमजोर-कुपोषित बच्चों को जन्म दिया| ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे 'क्वालिटी' की बजाए 'क्वांटिटी' पर ज्यादा ध्यान दे रहें है| बाद में आपका रुझान कोटा नामक 'कोठे वाली' की तरफ बढ़ने लगा| उनकी पत्नी (मानव संसाधन विकास मंत्रालय) ने कोटा से उन

एक चोमू था ...

Image
[ये छोटी सी कहानी ठीक दो साल पहले मैंने होली पर लिखी थी, इस कहानी के पात्र प्रेरित है लेकिन घटनाएं काल्पनिक ... शायद] एक चोमू है| अंडाकार मुँह, सामान्य कद-काठी, सर पर खिचड़ी से बाल, सुनहरे फ्रेम का चश्मा और चेहरे पर नेताओं वाली मुस्कान| मुझसे तीन कमरे छोड़ कर वो अकेला रहता है या यह कहना बेहतर होगा कि अकेला कर दिया गया है| जब रोज़ सुबह बरामदे के आखिर कमरे से में उनींदी ऑंखें लिए निकलता हूँ तो चोमू नहा कर लौट रहा होता है| एक हाथ में बाल्टी थामे, दूसरा हाथ उठा कर आते हुए लोगो को 'गुड मार्निंग' बोलता है| लेकिन आठ महीने बीते किसी ने शायद ही उसे पुनः अभिवादित किया हो| मेरे पास से गुजरते हुए आशाभरी नज़रों से वो मुझे भी देखता है और मैं नींद में होने का बहाना कर पैर घसीटता आगे बढ़ जाता हूँ| होस्टल का हर दिन एक उत्सव है| हँसी- मजाक, गप्पे, क्रिकेट, ताश और वक्त मिला तो पढ़ भी लिए| लेकिन चोमू के लिए ये उत्सव मात्र देखने का तमाश है| गुजरते हुए चोमू को लोग कुछ इस तरह अनदेखा कर देते है जैसे खामोश हवा, जिसकी उपस्थिति को लोग महसूस तो करते है पर देख नहीं पाते| अगर कभी उसने हिस्सा लेना

The formula of Election; ऑस्ट्रेलिया से 'कार-की-ऊन'

Image
(यह लेख मुख्यतः आई.आई.टी. मुंबई के परिपेक्ष पे लिखा गया है, अगर किसी की भावनाओं को इससे ठेस पहुंची हो, तो उन्हें 'नेतागिरी' छोड़ देनी चाहिए।)  बॉलीवुड में अक्सर फोर्मुला फ़िल्में बनती है| फोर्मुला जिसके सारे रासायनिक तत्व तय है| ढाई किलो का हाथ, चुटकी भर सिन्दूर, एक कुँवारी बहन, मोगेम्बो खुश हुआ और ज़रा सी मुन्नी शीला| हिट फिल्म तैयार| कॉलेज में बिताए गए कुछ साल, हर शुक्रवार पहला शो| लगता है जैसे फिल्में, फ़िल्में ना होकर 'रेडी टू ईट' पैकेट हो| पिताजी कि मेहनत के १०० – १५० रुपये मिलाओ, स्वादानुसार पोपकोर्न, समोसा डालो – लो बन गई फिल्म| मैं ये सोचता था – ये फिल्म वाले तो बड़े होशियार निकले| नेता देश चलाने का, प्रेमी प्यार जताने का और विद्यार्थी नंबर लाने का फोर्मुला ना ढूंढ पाए, इन्होने ढूंढ लिया| फिर कॉलेज में तीन साल हो गए तो एक और फोर्मुले 'चमका'| आअह .. 'द इलेक्शन फोर्मुला'|   नहीं| मैं इतना होशियार नहीं| मुझे मात्र समझ आया| मुझसे पहले उम्मीदवारों कि कितनी ही पीढियाँ, उनके दाएँ-बाएँ हाथ, सलाहकार, चमचे, उनके लिए दौड़ने वाले, मचाने वा

खुदा से खफ़ा

Image
एक और हार, बढ़ता इंतज़ार, झुंझलाते लोग, आखिर क्यों ना चिल्लाए? जब शिकायत खुद खुदा से हो- तो हम किसके पास जाए?   

चाँद

Image
रोज़ सांझ ढले आता है चाँद, पिघलते आसमान पर रात पोंछ जाता है। पर चाँद आलसी है ज़रा, कुछ टिमटिमाते नुक्स अक्सर छोड़ जाता है।    ऋषभ        

एक सुबह समीर पर

Image
(२८ जनवरी २०१२ की सुबह, जब सुबह अलसाई सी उठने को थी, दबे पाँव कुछ दोस्तों के साथ में अपनी  कॉलेज के 'समीर पर्वत' पर जा पहुँचा। ये छोटी सी कविता मुझे वही मिली।) हथेली में सिमटी, कोहरे में लिपटी, अंगुल भर इमारतों को निगलती धुंध। एक रास्ता  अनछुआ सा। पिघलती रात में हांफती सी साँसे। ज़मीन से दूर  इस आसमां पर  पहुँचो,  तो सुकूँ मिले।  धुंध को पोंछती, जाड़े की धुप, थकी हवाओं पर तैरते परिंदे। किरणों पर सवार, नज़रे अनंत तक। एक 'विहार' दर्पण सा, ज़रा दूर है, अक्स दिखता नहीं । ज़मीन से दूर  इस आसमां पर  पहुँचो,  तो सुकूँ मिले।  आखिर बोझिल पलकों तले, जब दुनिया को सिमटता पाया, तू कुछ करीब लगा, एहसास हुआ,  इस धरा पर बस मुसाफिर है हम। ज़मीन से दूर  इस आसमां पर  पहुँचो,  तो सुकूँ मिले।  ऋषभ