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Showing posts from September, 2010

खुदा!! (उर्दू में पहली कोशिश )

[इस रचना में मैंने खुदा और कौम शब्द किसी धर्म विशेष के लिए नहीं लिखा है ! साथ ही कुरआन को किसी धर्म से न जोड़कर सच्चधर्म के रूप में देखा जाये ! मुझे ख़ुशी होगी अगर आप अपनी सोच वृहत रख कर ये पढेंगे ! मेरा उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओ को आहात करना नहीं है !! ] सियासत की सियाही में जो डूबकर लिक्खा ! लिक्खा नहीं था वो मैंने गद्दार ने लिक्खा !! पर ईमान की इबारत से मैंने शब्द जो उकेरे ! तारीफे ना मिली, लेकिन इंसान ने लिक्खा !! जिस ज़मीं को कई पीर पैगम्बरों ने सीचा ! रोशन था जहाँ चैन और अमन का बागीचा ! उस राम, बुद्ध महावीर  की पाक ज़मी पे अब ! चलता नहीं है क्यों  इमान का सिक्का !! ऐ मददगार ! तुने इतने ज़ुल्म ज़ख्म जो किये ! छीने है कई अश्क! सितम, दर्द जो दिए ! क्यों बेशर्म सा तभी भी तू छुपकर है  यूँ बैठा ! ऐ खुदा, ऐ सितमगार अपना नूर (चेहरा) तो दिक्खा !! जिन्होंने मासूम जिंदगियों के बुझाए कई दिये ! कौम के नाम पर कलम काफिरों के सर कई किये ! वे गुनेहगार इंसानियत के, इबादत को जो आये ! ऐ खुदा ! ज़रा गौर से उन्हें कुरान तो सिक्खा !! ऋषभ jain    

एक छुपी कहानी

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हर बिना धुले कपडे की एक कहानी होती हें ! सिमटी हुई सी, कभी आस्तीन कभी जेब कभी महक में छुपी ! झांकते है कुछ लम्हे कुछ यादे, उन सिलवटो और निशानों से ! और सुनाते हें एक कहानी उस सफर की, जो उसके धुलने के साथ ही  भुला दिया जाएगा ! हर बिना धुले कपडे की एक कहानी होती हें !! . . राजू का मिटटी से सना स्कूल का नीला शर्ट बता रहा हें कि आज उसने खेला है फुटबाल क्लास छोड़ कर ! कुछ भीगी सी आस्तीने गवाह हें कि पसीना फिर उसने बाज़ुओ से ही पौछा है ! . पड़ोस कि आंटी की लखनवी डिजाईनर साड़ी पर लगे सब्जी के निशान बता रहे है भोज में आये मेहमानों कि भूख को ! रोज़ मोहल्ले का डान बनकर घूमने वाले महेश कि शर्त फटी हुई हें आज, वो पिट कर लौट रहा है या हवालात से ! . बड़े भैया के एक बाजू से महक रहा है जनाना इत्र, उस लड़की का जिसके हाथ थाम जनाब सिनेमा देख आये हें ! पिताजी का सिलवटो और पसीने से भरा शर्ट हिसाब देता हें उन पैसो का, जो हम बेफ़िक्री से उड़ाते हें ! माँ की साड़ी में गंध और कालिख हें कोयले की

Commentary

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जिंदगी की पारी में वक्त है बल्ला टांगने का ! लोग कहते है कि में भूल जाऊं, वो तेज तर्रार शाट लगाना ! वो नाचती सी फिरकी गेंदे फेकना ! मुश्किल गेंदों को गिरते फिसलते हुए से पकड़ना ! भूल जाऊ वो, अच्छी पारी के बाद बल्ला हवा में घुमाना और मैच हारने के बाद सर झुका मायूसी से लौटना ! भूल जाऊ उन दर्शकों को, जो एक शाट पर तालियाँ और एक गलती पर गालियां देते है ! साथ ही भूल जाऊं उन बूढ़े commentators को, जो खुद भी कभी खिलाडी हुआ करते थे ! जिनकी सीखें और सबब आज कोई नहीं सुनता ! जो कांच के बक्सों में बैठे, अनमने से कुछ उबाऊ सा बतियाते रहते है !! . . . . आज कुछ साल बीत गए हें बल्ला टाँगे हुए ! अब कोई सुनता नहीं हें मेरी भी ! तजुर्बा अलमारी कि ऊपरी सतह पर रखा सड़ रहा हें ! कही अब वो पुराने दोस्त मिलते हें तो, जिंदगी के मैच कि ज़रा commentary कर लिया करते हें !! Rishabh Jain