बूँदें
फिर...
बरसने लगी है बूँदें,
ऊपर कोठरी में
लौट आई है ...
टपकती छत,
बरसने लगी है बूँदें,
टपकती, छूती,
टीसती, रीसती|
सभी रंग समेटे,
बेरंग ये बूँदें ||
ऊपर कोठरी में
कुछ यादें पुरानी सी,
महफूज़ करके राखी थी बक्से में...
शायद उनमे सीलन लग गयी है,
खुशबुएँ दौड़ रही है सारे घर में,
इन नयी दीवारों को तोडती हुई||
लौट आई है ...
वही महक मिट्टी की
सदियों पुरानी,
सड़कों पर उफनता पानी
फिसलती साइकल,
दौड़ते पाँव
टूटती चप्पलें,
तैरती कश्तियाँ
उड़ते इन्द्रधनुष,
चमकना बिजली का
और ...
बिजली का गुल होना ||
बिजली का गुल होना ||
टपकती छत,
भीगती पिताजी,
चाय की प्यालियाँ
और बेसन के पकौड़े |
बालों को पोंछती माँ,
फुर्सत के दो क्षण
मुस्कुराती हुई||जिंदगी थम सी जाती थी,
तब भी ... और अब भी|
तब भी ... और अब भी|
सोचता हूँ अगले बरस,
यादों को ज्यादा महफूज़ रखूं
लपेट दूँ पुराने कागज़ में |
या फिर सोचता हूँ
बह जाने दूँ इस बारिश में |
क्योंकि वक़्त अब
रुकने की इजाज़त नहीं देता !
पानी अब तक बरस रहा है ...
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