The formula of Election; ऑस्ट्रेलिया से 'कार-की-ऊन'


(यह लेख मुख्यतः आई.आई.टी. मुंबई के परिपेक्ष पे लिखा गया है, अगर किसी की भावनाओं को इससे ठेस पहुंची हो, तो उन्हें 'नेतागिरी' छोड़ देनी चाहिए।) 

बॉलीवुड में अक्सर फोर्मुला फ़िल्में बनती है| फोर्मुला जिसके सारे रासायनिक तत्व तय है| ढाई किलो का हाथ, चुटकी भर सिन्दूर, एक कुँवारी बहन, मोगेम्बो खुश हुआ और ज़रा सी मुन्नी शीला| हिट फिल्म तैयार| कॉलेज में बिताए गए कुछ साल, हर शुक्रवार पहला शो| लगता है जैसे फिल्में, फ़िल्में ना होकर 'रेडी टू ईट' पैकेट हो| पिताजी कि मेहनत के १०० – १५० रुपये मिलाओ, स्वादानुसार पोपकोर्न, समोसा डालो – लो बन गई फिल्म|


मैं ये सोचता था – ये फिल्म वाले तो बड़े होशियार निकले| नेता देश चलाने का, प्रेमी प्यार जताने का और विद्यार्थी नंबर लाने का फोर्मुला ना ढूंढ पाए, इन्होने ढूंढ लिया| फिर कॉलेज में तीन साल हो गए तो एक और फोर्मुले 'चमका'| आअह .. 'द इलेक्शन फोर्मुला'|  

नहीं| मैं इतना होशियार नहीं| मुझे मात्र समझ आया| मुझसे पहले उम्मीदवारों कि कितनी ही पीढियाँ, उनके दाएँ-बाएँ हाथ, सलाहकार, चमचे, उनके लिए दौड़ने वाले, मचाने वाले और 'पोल्ट' लोग ये फोर्मुला घोल चुके थे| समझ आया तो ठीक, नहीं तो रट लिया| ये धरोहर पीढ़ी दर पीढ़ी आगे सौपी गई| जीते हुए उम्मीद्वार गुरु बने, सलाहकार बने| उनके गुणगान हुए, उन्होंने आगे ज्ञान बांटा| हारे हुए उमीदवारों ने भी चुनाव-कक्ष के बाहर आकर गहन चिंतन, विचार विमर्श किया| "भाई! फोर्मुला तो याद था, 'अप्प्लाए' करने में ज़रा 'सिली-मिस्टेक' हो गई| देखते है अगले साल कौन रोक पाएगा?" (चुनाव में 'ड्रोपर्स' काफी अच्छा प्रदर्शन करते है|)

चुनाव से कुछ महीने पहले ही लोग 'कोचिंग' में जाने लगते है| बड़े-बड़े गुरुओ, मेंटरों के गुरुकुल में भर्ती को लाइन लगती है| एक बार उनका आशीर्वाद मिल जाए, फिर तो जीतना तय है| अब जिनका सलेक्शन सीट पहले ही भर जाने के कारण ना हो पाए, वो छोटे-मोटे अध्-ज्ञानी, हारे हुए गुरुओं के यहाँ कोचिंग लेता है, हो सके तो दो-तीन जगह भर्ती हो जाते है|

आगे शुरू होती है लंबी पढ़ाई| युनिफोर्म्स पहनी जाती है, कड़क प्रेस शर्ट अनिवार्य रूप से| फेसबुक की मोह माया त्यागनी पड़ती है| रोज़ नहाना पड़ता है (कम से कम डियो तो लगाना ही पड़ता है) और ये तो बस कठिन जीवन की शुरुआत है| 

फिर प्रारम्भ होती है असली शिक्षा – 'जमीनी कार्य'| जिन लोगो को साल भर सर उठा के नहीं देखा, चुनाव के मौसम में अचानक उनके भाव बढ़ जाते है| जो मुफ्त में घर आकार पढ़ाते थे, उन्हें कॉल कर-कर के ट्यूशन लेने पड़ते है| ऊपर से हर पेज के बाद 'सरप्राइज़' मिलते है| "अच्छा! ये भी कोर्स में था? "अ...आप अभी तक पढ़ा रहे है क्या? हा हा हा ! हमने सोचा 'रिटायर' हो गए|" अब किसी विषय को ना पढ़ो तो अलग सुनना पड़ता है- "ये कल का छोकरा! समझता क्या है अपने आप को? बिना संगीत को पढ़े चुनाव जीत जाएगा? देखते है कैसे नंबर लाता है|" 

इतना थकाऊ, उबाऊ और पकाऊ कोर्से है कि आधे तो बीच में ही 'गिव अप'| चुनाव लड़ने की बजाए वे 'ई-सेल', 'सार्क' इत्यादि कंपनियों में जॉब कर लेते है| बचे हुए नौजवान अगले स्तर  में पहुँचते है| जहाँ उन्हें बेसिक्स से सबकुछ समझाया जाता है| पके हुए पुराने खिलाडी अपना अनुभव तोल कर उन्हें समझाते है – ""बेटा! 'थ्योरी' तो बहुत पढ़ ली तुने, मेहनत भी बहुत कर ली| पर सच कहूँ 'चुनाव' में बस 'ये फोर्मुला' काम आता है | काम, मेहनत, डेडिकेशन, केलिबर सब पर 'पोल्ट' की बाउंड्री कंडीशन लगा के ये 'फोर्मुला' डिराइव हुआ है|" सारे गुरु अपने-अपने तरीके को सर्वश्रेष्ठ बताते है| कौनसा चले? क्या पता?

फिर ये फोर्मुला हर जगह प्रोब्लम पर 'अप्लाई' किया जाता है| दोस्तों, दुश्मनों, एंटी-केम्प में, केम्पेनिंग, इलेक्शन डिबेट, कौंसिल | 'मुन्नाभाई' टाइप उम्मीदवारों को आनेवाले प्रश्न-उत्तर रटवाने और विपक्ष के डा.आस्थाना से बचाने के भी भरसक प्रयास होते है| पोल्ट के सेकेंड टायर लोग (सोफीस), नए लड़कों (फ्रेशीस) को हर और दौड़ा देते है, "जाओ आज हर मटके को पानी पिला के आओ, फॉर-अ-चेंज, उम्मीदवारों के पेपर मटके ही चेक करते है| मार्च-पास्ट १२-१३-१४! १२-१३-१४!" आधे फ्रेशीस तो यही से 'चुनाव' स्ट्रीम चेंज कर के 'टेक-फेस्ट' या 'मूड-इंडिगो' में चले जाते है| "यार अपना राजेश तो बचपन से 'मचाऊ' है,सुना है 'चुनाव' लिया है| अपन तो पी.टी.सेल में ही ठीक है|"

शर्मा जी, वर्मा जी वार्तालाप करते है- "यु नो! मेरा बेटा पहले 'फिल्म कोष' का अध्यक्ष था,बड़े बड़ों का कटाया है,पोल्टनीति का प्रकांड विद्वान है,जिधर हवा उसी तरफ| देखना ज़रूर जीतेगा|" वर्मा जी- "अजी छोडिये! हमारा पप्पू 'भीतरी समूह' का सदस्य' रहा है, ऑस्ट्रेलिया से 'कार-की-ऊन' लेके आया है, वही जीतेगा|"

और आखिरी कुछ दिन, कभी ओवर-कांफिडेंस मारता है, कभी घबराहट-

"अरे सब आता है मुझे,ये 'कोश्चन' तो बचपन से अपना है, कोई और हिला ही नहीं सकता|"

"प्रश्न ६ में ज़रा दिक्कत है – भाई! संभाल लेना यार, चीटिंग करा देना|"

"क्या बात अन्ना भाई, दिखाई नहीं दियो चलो कुछ खिलाता-पिलाता हूँ आपको, तब तक एक क्वेशन समझा दो यार।"

आपके भाई हर कोने से निकल के प्रकट होने लगते है| खुद पे शक होने लगता है "कहीं मैं पूर्वजन्म का दुर्योधन तो नहीं?" अंततः सुनामी चुनाव आता है, कई लोग बैठते है पर सलेक्ट कुछ लोग ही होते है| 'नो डाउट' एग्जाम टफ है | पर अगर सही फोर्मुला आता है – तो जीत आपकी, चाहे आप केवल 'चित्रकार' ही हो|


(जानकारी के लिए, कार की ऊन पिछले साल १८ दिसंबर को ऑस्ट्रेलिया से मंगवाई गई थी| यह अब तक कि सबसे महंगी ऊन थी|) 


-:जनहित में जारी:-

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Comments

  1. What a crisp satire !! Great work

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  2. आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
    अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे
    एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
    चार छ: चमचे रहें... माइक रहे.... माला रहे...

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