एक सुबह समीर पर
(२८ जनवरी २०१२ की सुबह, जब सुबह अलसाई सी उठने को थी, दबे पाँव कुछ दोस्तों के साथ में अपनी कॉलेज के 'समीर पर्वत' पर जा पहुँचा। ये छोटी सी कविता मुझे वही मिली।)
हथेली में सिमटी,कोहरे में लिपटी,
अंगुल भर इमारतों को निगलती धुंध।
एक रास्ता अनछुआ सा।
पिघलती रात में हांफती सी साँसे।
ज़मीन से दूर
इस आसमां पर पहुँचो,
तो सुकूँ मिले।
धुंध को पोंछती,जाड़े की धुप,
थकी हवाओं पर तैरते परिंदे।
किरणों पर सवार,नज़रे अनंत तक।
एक 'विहार' दर्पण सा,ज़रा दूर है,
अक्स दिखता नहीं ।
ज़मीन से दूर
इस आसमां पर पहुँचो,
तो सुकूँ मिले।
आखिर बोझिल पलकों तले,
जब दुनिया को सिमटता पाया,
तू कुछ करीब लगा,
एहसास हुआ,
इस धरा पर बस मुसाफिर है हम।
bahut hi umada
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