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Showing posts from 2011

खोया हूँ ...

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एक अटकी सांस, कुछ उलझे अलफ़ाज़, चंद उधार धड़कने, मेरा कुछ भी तो नहीं मुझमे | रे पगली, तू मुझको मुझमें क्यों ढूंढ़ती है? में तो खोया हूँ तुझमे | 

जंगलराज

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सच जानते है सब,  पर बेखबर है | क़ानून के हाथ लम्बे  है, पर बेअसर है | हर दबिश से पहले, दबे पाओं की आहट है | राजनीतिक गलियारों में, सरेआम सुगबुगाहट है | इन व्याभिचारियों के आगे, क़ानून ज़रा छोटा है | पहचान कर भी सबूत नहीं, अच्छा सिला मुखौटा है |    यहाँ परचम उन्हीं का चलता है,  कुनबा उनका आबाद है |  वे मरकर भी आरोपी है, ये ह्त्या कर भी आज़ाद है |

लोग कहते है ...

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ऐ खुदा, तुझे ढूंढा | इबादतगाहों में. दीवारों-दरख्तों में, संत-फकीरों में, ना मिला | . फिर इक रोज़ राह चलते, नूर दिखा तेरा | . और  ये नादां लोग, हँसते है, शायद जलते है मुझसे| कहते है, मुझे प्यार हुआ है | 

सत्य मेव जयते

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(आज देश के जो हालत है  उनसे कोई अनभिग्य नहीं | सफ़ेद झूट को सच बना कर परोसा  जा रहा है और हम लाचार से सब देख सुन रहे है| सच की जीत अब सिर्फ फिल्मो में होती है, कई बार वह भी नहीं | ऐसे में एक आम आदमी आखिर क्या कहे ? क्या करे ? इस प्रश्न का जवाब भी एक आम आदमी ही दे सकता है ... तो झांकिए अपने भीतर, आप लड़ना चाहते है या डर-डर के मरना चाहते है ... ) इस देश में सच के रखवालों के नाम  एक युवा का पैगाम   सत्य वचन की रीत जहाँ थी, जन-मानस की भाषा मे, प्राण जाए पर वचन न जाएं, था मानव की परिभाषा में | जहाँ राम ने और कृष्ण ने, असुरों का संहार किया, यदि शीश है उठा पाप का, मस्तक पर प्रहार किया | उसी देश के वाशिंदे, अंधी परिपाठी पर झूल गय, स्वाभिमान तो बचा नहीं गाँधी की लाठी को भूल गए |  अर्थ नहीं समझते तो क्या, गर्व से हम कहते ... सत्य मेव जयते, हाँ भैया ! सत्य मेव जयते ||   गांधी के आदर्शों पर जहां कालिख पोती जाती है, भूखे बच्चे हर रात जागते, सरकारे सोती जाती है |  मातृभूमि की दशा देख, शूर पृथ्वीराज शर्मिंदा है, जहाँ वीरता थी बस्ती, बस जयचंद वह अब जिंदा है | भ

एक "Facebukiya" प्रेम कहानी ...

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Facebook पर हुआ प्यार, Facebook पर ही इकरार, Farm-ville में हुई शादी, और शुरू हो गयी तकरार, chat पे चिक चिक, ♥ U ... F U ... , finally, divorce हो गया Distanc e Learning Course हो गया ||

Placement Season "इस्पेसल'

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Intern का बुखार है, Placements की तलवार है, कम्पनी काँटा फेंक रही ... अटक गए, या लटक गए | लाइन लगी बड़ी लम्बी, घुसने को धक्का मुक्की, अच्छी सीट चाहिए तो, झगड़ लो.. या नबड लो | कुछ के पापा की है कम्पनी, उनको जॉब नहीं करनी, वेसे भी उनकी नहीं लगनी, लक्की बेटा, ऐश करो, मौका केश करो | जिनको नहीं है शांति, सोचते है करेंगे क्रांति, स्टार्ट-अप कर लो अपना, हो सकता है- fart हो, हो सकता है-flipkart हो |  वो हरे लिफाफे फेंक रहे, कई हाथ बढ़ा कर सेक रहे, पर दिल भी बहुत जला रही. तुम कौन  हो ?? ये समझ लो | अगर कोई बात नहीं बने, खोटा सिक्का नहीं चले,  AOL का कोर्स करो, बाबा बनो, योग करो |||

परछाई

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परछाई कहती नहीं मुश्किल है सफर ,   परछाई पूछती नहीं मजिल है कहाँ ,   परछाइ छोड़ती नहीं तुम्हें तेज़ धुप में ,   बस चुप - चाप साथ चलती है , नंगे कदमों को ज़मीं से छूने नहीं देती |   जब होती है नज़रें तुमपर ,   जब होता है रोशन जहाँ ,   जब जुबां चखती है शोहरत का स्वाद ,   छुप जाती है कहीं पीछे कोने में परछाइयाँ ,   लेकिन अँधेरे में हर ओर ढक लेती है मुलायम कम्बल सी |   बेसुरे गीत सुनती है तेरे ,   बाँटती है तन्हाइयाँ झील किनारे , सुनती है हर शिकायत ख़ामोशी से ,   वो थामे रखना चाहती है तुझे ,   चाहे ढलता सूरज जिंदगी खत्म कर रहा हो उसकी |   हर दुःख में सहलाती है वो ,   हर करवट वो तेरे साथ बदलती है ,   हर ग़मगीन रात में जागती है साथ तेरे ,   हर ज़ख़्म सहती ...  ... सरकती ताउम्र ... दूर होती नहीं , समय , किस्से , जिंदगी तक खो जाती है , परछाई खोती नहीं |   ऐ खुदा!  !  बस दुआ दे इतनी ,   एक हमसफ़र मिले , एक दोस्त मिले ,   जो परछाई बने मेरी ,   और ... जिसकी परछाई मैं बन सकूं || सुन कर देखें ...

बूँदें

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फिर... बरसने लगी है बूँदें, टपकती, छूती, टीसती, रीसती| सभी रंग समेटे, बेरंग ये बूँदें || ऊपर कोठरी में कुछ यादें पुरानी सी, महफूज़ करके राखी थी बक्से में... शायद उनमे सीलन लग गयी है, खुशबुएँ दौड़ रही है सारे घर में, इन नयी दीवारों को तोडती हुई|| लौट आई है ... वही महक मिट्टी की सदियों पुरानी, सड़कों पर उफनता पानी फिसलती साइकल, दौड़ते पाँव टूटती चप्पलें, तैरती कश्तियाँ उड़ते इन्द्रधनुष, चमकना बिजली का और ... बिजली का गुल होना || टपकती छत, भीगती पिताजी, चाय की प्यालियाँ और बेसन के पकौड़े | बालों को पोंछती माँ, फुर्सत के दो क्षण मुस्कुराती हुई|| जिंदगी थम सी जाती थी, तब भी ... और अब भी| सोचता हूँ अगले बरस, यादों को ज्यादा महफूज़ रखूं लपेट दूँ पुराने कागज़ में | या फिर सोचता हूँ बह जाने दूँ इस बारिश में | क्योंकि वक़्त अब रुकने की इजाज़त नहीं देता ! पानी अब तक बरस रहा है .. .

फिर से चुनाव ...

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(चुनाव / election चाहे किसी भी स्तर के हो, देश, राज्य या विश्वविद्यालय किसी को भी परखना, किसी का साथ देना बेहद मुश्किल है। अक्सर सच-झूठ, दोस्ती-स्वार्थ, वादों-इरादों के बीच एक झीना सा पर्दा होता है।अपना कोना अधिक उजला।पुरानी दीवारों पर रंग पोते जाते है, वक़्त को कुरेद रिश्ते ढूंढे जाते है, बिसात बिछती है, मुहरों की खरीद फरोख्त, सच को छोड़ सबकुछ प्रदर्शित होता है। जीत चाहे किसी की भी हो, जनता अक्सर हांर जाती है।) आज उजाले में कुछ साये, बेनकाब हो घूम रहे हैं ! चेहरे पर चेहरा पहने , अनजानो को चूम रहे हैं! आज उजाले में कुछ साये, बेनकाब हो घूम रहे हैं !! कौन है अपना, कौन पराया ! किसी का सच , किसी ने चुराया ! जाम दोस्ती, वैर के पी, बेहया से झूम रहे है ! आज उजाले में कुछ साये, बेनकाब हो घूम रहे हैं !! आँख, कान पर अब नहीं भरोसा ! दिल भी देने लगा है धोका ! शक उन पर भी है अब तो , जो रुई से मासूम रहे है ! आज उजाले में कुछ साये, बेनकाब हो घूम रहे हैं !!