बापू! अब मत आना
२१वी सड़ी ने धरती पर कदम रखा ही था| बदलाव की आंधी संस्कृति और संस्कारों को उड़ा रही थी |इस बदलाव से स्वर्ग भी अछूता ना रहा| वीणा के सुरों के स्थान पर अब इलेक्ट्रिक गिटार का 'बेकग्राउंड म्यूजिक' बजने लगा|मेनका की जगह 'ब्रिटनी' अप्सराओं की 'रोल मोडल' बन गयी और जो नेता यमराज को रिश्वत देकर वहां पहुंचे थे, वे अपनी अपनी पार्टी बना इंद्र की कुर्सी के लिए लड़ने लगे|
इन सब के बावजूद 'बापू' तटस्थ रहे| लेकिन एक दिन बापू का चरखा 'ओल्ड फैशंड' बता कर स्वर्ग से फेंक दिया गया| उनका मन उचाट गया| उन्होंने सत्याग्रही अनशन करने की कोशिश की तो अप्सराओं ने ज़बरदस्ती अंगूर खिला दिये| अंततः तंग आकर बापू स्वर्ग त्याग दिया | वे अपने प्यारे आज़ाद भारत को देखने पृथ्वीलोक आ गए और मुंबई घूमने लगे|
चारों ओर ऊँची इमारतें, तेज़ भागती गाड़ियां, माल सब उनकी कल्पना से परे था| उन्हें गर्व हुआ भारत की तरक्की पर| जगह जगह उनके स्मारक, मूर्तियाँ , रास्तों के नाम, नोट पर तस्वीर देख बापू का अचम्भा और बढ़ गया| सोचा चलो भारत सही रस्ते जा रहा है|
अचानक दो युवक उन्हें देख रुक गए, पहला बोला -"भाई मुझको बापू दिखरेले है|" दुसरे ने जवाब दिया "मुझे भी दिखरेले है बाप, जरूर कोई केमिकल लोचा है|" बापू की समझ में कुछ नहीं आया| कई लोग उनके पास आकर तस्वीरें लेने लगे, कई औटोग्राफ मांगने लगे| बापू बड़े खुश थे|
रात में एक अँधेरी गली से बापू को किसी महिला की मदद की गुहार सुनाई दी| कुछ नशे में धुत्त युवक एक युवती के साथ अभद्र व्यवहार कर रहे थे और भीड़ दूर खादी तमाशा देख रही थी| सबकी जुबां पे ताला, हाथों में जंग| किसी में हिम्मत नहीं थी गलत को रोकने की| बापू ने युवकों को समझाने की कोशिश की तो उन्हें धक्का दे कर गिरा दिया गया| कोई मदद को नहीं आया| कुछ तो हंसने लगे "सिरफिरा| गांधीगिरी करने चला था|" बापू के भ्रम पलभर में टूट गए|
उन्होंने बारीक नज़र से चरों ओर देखा| क्या देश सच में आज़ाद था?
हाँ, कहने को मुल्क आज़ाद था| लेकिन मानसिकता पराधीन थी| लोगों ने अपना ज़मीर, ईमान, हिम्मत सब गिरवी रख छोड़ा था| ना सच का साथ देने कि हिम्मत थी, ना अत्याचार का सामना करने की| जब तक खुद पर ना बीते किसी की जुबां से लफ्ज़ ना निकलता था| अफसर कर्म से, नेता शर्म से और कौमें असली धर्म से आज़ाद थी| अमीर न्याय से,अभिनेत्री कपड़ों से और संसद जवाब देहि से आज़ाद थी| व्यापारी मिलावट को आज़ाद थे, उद्योगपती घोटाले करने को| डूबता देश अब किसी का नहीं था| सभी दूसरों की ज़मीं खोद अपनी इमारत ऊँची करने में लगे थे| अब मशाल थमने वाला कोई ना था| अगर कोई कोशिश करता भी तो खुद दलदल में धंसता चला जाता|
बापू ने दर्द में आँखें मूँद ली| काश वे धरती पर लौटे ही ना होते| उन्होंने अपनी लाठी संभाली और धीमे क़दमों से आसमान की ओर चले गए|
काबिलेतारीफ कटाक्ष....अतिसुंदर |
ReplyDeleteगाँधी जी को अभी और भी बहुत कुछ देखना बाकी रह गया |
मेरा ब्लॉग आपके इंतजार में-
"मन के कोने से..."
अच्छा satire लिखा है आपने :)
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